OSHO DAILY 1 MEDITATION
https://youtu.be/6JNBer37gR0
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*तुम्हारी सारी पूजा और आराधना नकली है क्योँ कि असली पूजा तो जीवन जीना है , वह पूजा या आराधना नहीँ है । जीना और क्षण प्रतिक्षण जीना -- और इस प्रमाणिक रूप से जीने मेँ ही कोई एक जानता है कि परमात्मा क्या है , क्योँ कि वह एक जानता है कि वह एक है कौन ?*
*तुम्हारा परमात्मा का विचार जीने से एक पलायन है । तुम जीने से और प्रेम से डरे हुए हो , तुम मृत्यु से भी भयभीत हो । तुम अपने मन मेँ एक बड़ी कामना सृजित करते हो तब तुम परमात्मा की पूजा करने लगते हो , और तुम एक नकली परमात्मा की पूजा कर रहे हो !*
*असली पूजा छोटी-छोटी चीजोँ से बनती है , न कि शास्त्रोँ के अनुसार बताए क्रिया काण्डोँ से -- ये सारे क्रिया काण्ड तुममेँ यह विश्वास उत्पन्न करने के लिए केवल व्यूह रचनाएं या तरकीबेँ हैँ कि तुम कुछ विशिष्ट चीज अथवा कुछ पवित्र कार्य कर रहे हो । तुम और कुछ भी नहीँ , केवल पूरी तरह से मूर्ख बनाए जा रहे हो । तुम नकली परमात्मा सृजित करते हो -- तुम प्रतिमाएं , मूर्तियां और पूजाघर बनाते हो -- तुम वहां जाते हो और वहां मूर्खतापूर्ण चीज़े करते हो , जिन्हेँ तुम यज्ञ , प्रार्थना और इसी तरह की सामग्री कहकर पुकारते हो । तुम अपनी मूर्खता की सजावट कर सकते हो, तुम वेद - मंत्रोँ का पाठ कर सकते हो, तुम बाइबिल पढ़ सकते हो, तुम गिरजाघरोँ, मंदिरोँ आदि मेँ जाकर क्रियाकाण्ड कर सकते हो, तुम अग्नि के चारोँ ओर बैठकर गीत और भजन गा सकते हो, लेकिन तुम पूरी तरह से मूर्ख बन रहे हो, यह ज़रा भी धार्मिक होना है ही नहीँ ....!!*
*ओशो*
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कोई तुमसे कहता है कि कृष्ण को पूजो, मुझे देखते नहीं मैं कितना आल्हादित हो रहा हूं कृष्ण को पूज कर। तुम भी लोभ में पड़ते हो, सोचते हो शायद कृष्ण की पूजा से कुछ होता होगा। ध्यान रखना, कृष्ण का इसमें कुछ हाथ नहीं है, यह कृष्ण की पूजा करनेवाले में ही सब कुछ छिपा है—उसके प्रेम में छिपा है। उसने कृष्ण की मूर्ति पर अपने प्रेम को उंडेल दिया, अब वह मूर्ति जीवंत हो गयी। उसने इतना प्रेम उंडेल दिया है कि अब वह मूर्ति पत्थर नहीं रही, पाषाण नहीं रही, उसमें प्राण आ गये। उसने अपने हृदय की धड़कन मूर्ति में रख दी है। इसका नाम भाव—प्रतिष्ठा है। अब मूर्ति की तरफ से वह स्वयं श्वास लेता है। यह मूर्ति उसके लिए मूर्ति नहीं है, तुम्हारे लिए मूर्ति है, उसके लिए मूर्ति नहीं है, उसके लिए इतनी जीवंत है जितना वह स्वयं भी जीवंत नहीं है। उसने अपना सब निछावर कर दिया है।
और तब उसके सामने मूर्ति का एक अप्रतिम रूप प्रकट होता है। उसकी आंख के सामने मूर्ति साकार हो उठती है। वह कृष्ण से बोलता है, बतियाता है। प्रश्न करता, उत्तर भी लेता— और ध्यान रखना, सब उसके भीतर हो रहा है। प्रश्न भी उसका है, उत्तर भी उसका है। लेकिन फिर भी एक क्रांति घट रही है। प्रश्न उसके मन का है, उत्तर उसकी आत्मा से आ रहा है। और वही आत्मा कृष्ण है। लेकिन उसने अपनी आत्मा को एक सहारा दे दिया कृष्ण का। अब कृष्ण के बहाने उसकी आत्मा बोल सकती है। कृष्ण का आधार दे दिया। उसका केंद्र उसकी ही परिधि से बोल रहा है। परिधि का प्रश्न है, केंद्र का उत्तर है। लेकिन अब उत्तर पकड़ने की उसे सुविधा हो गयी है, क्योंकि वहा कृष्ण सामने हैं। कृष्ण के दर्पण से उत्तर झलककर लौटता है, तो उसे यह भय नहीं होता कि मेरा उत्तर है। उत्तर उसका ही है। लेकिन इतना आत्मविश्वास नहीं है कि अपने उत्तर को स्वयं खोज ले। एक बहाने की, एक निमित्त की जरूरत है।
जो सीधा उत्तर सकता है अपने भीतर, उसे भी उतर मिल जाएगा। लेकिन उसे सदा एक संदेह रहेगा कि पता नहीं मेरा उत्तर है, कहां तक ठीक हो? हो सकता है मेरे मन ने धोखा दिया हो। हो सकता है मैंने गढ़ लिया हो। हो सकता है जो मैं चाहता था वैसा मैंने सोच लिया हो; मेरी वासना इसके भीतर छिपी हो। ये सारी शंकाएं उठेगी। तुम जानकर चकित होओगे, सदगुरु तुमसे वही कहता है, केवल वही कहता है, जो अगर तुम गौर से खोजते तो अपने भीतर ही पा लेते। सदगुरु दर्पण है। वह तुम्हारे अंतस्तम को झलका देता है।
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osho
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