OSHO EK SHUWAS
|| कोई किसी नहीं बदल सकता ||
अब तक तुम सोचते थे दुसरों को बदल दें। पत्नी सोचती थी, पति बदल जाए तो सब शांति होगी। पति सोचता था, पत्नी बदल जाए, तब सब शांति होगी। बेटा सोचता था बाप बदल जाए, बाप सोचता था बाप बदल जाए। अभी तक का जो तर्क था कि सारी दुनिया बदल जाए तो हम शांत होंगे। और यह होने वाला नहीं; इसलिए तुम शांत होने का कोई उपाय ही नहीं कर पाते थे।
अब सारा तर्क यह होगा कि अब मुझे ही बदलना है। किसी को बदलने का सवाल नहीं। संसार को नहीं बदलना है, स्वंय को बदलना है।
जिसे यह दिखाई पड़ गया, वह मंदिर के बिलकुल द्वार पर खड़ा हो गया। भाग सकता है मंदिर के द्वार से। क्योंकि पुरानी दुनिया ज्यादा राहतपूर्ण मालूम होती थी। दूसरे को दोष दे देते थे। चित्त को राहत मिल जाती थी।
अब यह बड़ी पीड़ा मालूम होगी।पीड़ा सघन होगी। हम ही दुख हैं, इसे झेलना मुश्किल होगा। लेकिन अगर तुम झेल गए तो इसी झेलने में क्रांति पैदा होती है। जब तुम देख लेते हो, मैं ही कारण हूं। तो अब तुम्हारे हाथ में है। दुखी होना हो वैसे ही बने रहो। दुखी न होना हो, रुपांतरित हो जाओ।
और दुनिया में कोई किसी को नहीं बदल सकता, सिर्फ स्वंय को बदल सकता है। एक ही बदलाहट संभव है, वह तुम्हारी अपनी। किसी दूसरे को बदलने का कोई उपाय नहीं है। जितने जल्दी तुम समझ लो उतना अच्छा, कोई कभी किसी को कभी नहीं बदल पाया है। ज्यादा से ज्यादा कोई अपने को बदल लेता है। लेकिन अपने को बदलते ही सारी दुनिया बदल जाती है। तब एक नया जन्म होता है तुम्हारा। और जैसे कल तुम पीड़ा के घाव थे, तब तुम भीतर एक आनंद के नृत्य हो जाते हो। और तब एक दूसरी यात्रा शुरु हो जाती है कि हर कोई कारण बन जाता है तुम्हारे आनंद के बहने के लिए।
एक बच्चा मुस्कुराता हुआ निकल जाता है और तुम अपूर्व पुलक से भर जाते हो। एक फूल खिलता है और तुम्हारे भीतर कुछ नाचने लगता है। आकाश में तारे उगते हैं और तुम मग्न हो जाते हो। कोई वीणा बजाता है और तुम्हारे भीतर तार छिड़ जाते हैं। झरने में कलकल का नाद होता है और तुम्हारा ह्रदय आकंठ भर जाता है किसी अपूर्व आनंद से। अब सब तरफ आनंद के कारण मिल जाते हैं। जैसे कल तक सब तरफ दुख के कारण मिलते थे, अब सब तरफ आनंद के कारण मिलने लगते हैं।
तुम ही हो दुख, तुम ही हो नरक, तुम ही हो स्वर्ग, तुम ही महासुख। महावीर ने कहा है तुम ही शत्रु अपने और तुम ही मित्र। न तुमसे बड़ा तुम्हारा शत्रु कोई है, न तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई मित्र है। शत्रु हो, अगर तुम दुख दूसरों पर खोज रहे हो। अगर मित्र बनना है तो आनंद को भीतर पैदा कर लो और तुम पाओगे, सारा अस्तित्व तुम्हारे उत्सव में सम्मिलित हो जाता है। सारा जगत उत्सव मना ही रहा है। वह तुम्हारे लिए रुका भी नहीं है। पक्षी गीत गाए चले जा रहे हैं। वृक्षों में हवाएं नाच रही हैं। आकाश में बादल तिर रहे हैं। झीलें परम शांति से भरी हैं। हिमालय के शिखर परम आनंद में उठे हैं।
सब तरफ आनंद है। एक तुम अपने भीतर दुख की गांठ लिए चल रहे हो। अब वह गांठ पक गई है बुरी तरह। जरा भी छू जाती है, तो बस नरक फूट पड़ता है। इस गांठ को हटा दो। यह हट सकती है, इसके हटाने का पहला उपाय तो यह है कि तुम दूसरों पर दोष लगाना बंद कर दो। सब बातों के लिए स्वंय ही दोषी हो जाओ। यही है रिस्पांसिबिलिटी; यही है उत्तरदायित्व कि तुम अपने लिए स्वंय ही जिम्मेवार हो। कोई दूसरा जिम्मेवार नहीं हैं।
इससे ही पहली आत्मभावना पैदा होती है। फिर नरक से गुजरना पड़ेगा। थोड़े दिन बड़ी पीड़ा होगी, जैसे पहले कभी न थी। जैसे सुबह होने से पहले गहन अंधकार हो जाता है, ऐसे स्वर्ग उठने से पहले नरक सघन हो जाता है।
ओशो,
मेरा मुझमें कुछ नहीं, प्रवचन 6
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