Prem hi prem

प्रेम खोने का रास्ता है!

और वही प्रेम परमात्मा तक ले जाएगा, जो खोना सिखाए। वही प्रेमी तुम्हें परमात्मा तक ले जा सकेगा, जो खुद भी धीरे-धीरे खोता जाए और तुम्हें भी खोने के लिए राजी करता जाए।प्रेम के मार्ग पर मिट जाना ही पाना है। कठिन होता है मिटना। पीड़ा होती है। बचा लेने का मन होता है। लेकिन जिसने बचाया उसने गंवाया। जो मरने को राजी है, वही प्रेम को जान पाया। प्रेम मृत्यु है, और बड़ी मृत्यु है; साधारण मृत्यु नहीं है जो रोज घटती है। वह मर जाना भी कोई मर जाना है! क्योंकि तुम तो मरते ही नहीं, शरीर बदल जाता है। लेकिन प्रेम में तुम्हें मरना पड़ता है, शरीर वही रहा आता है। इसलिए प्रेम बड़ी मृत्यु है, महामृत्यु है।इतने से काम न चलेगा--'मौत भी आती नहीं, सांस भी जाती नहीं।' सांस भी चली जाए, मौत भी आ जाए, तो भी काम न चलेगा। जब प्रेम में मरने की घड़ी आती है तो आदमी सोचता है, इससे तो बेहतर यह होता कि शरीर ही मर जाता, श्वास ही चली जाती। वह भी कम खतरनाक मालूम पड़ता है।यही तो अड़चन है प्रेम की--तपश्चर्या यही है--कि प्रेम भीतर से मार डालेगा। वह जो भीतर मैं है, वह जब चला जाएगा, फिर श्वास भी आती रहेगी तो भी कोई अंतर नहीं पड़ेगा। तुम न बचे।मेरे साथ जो चलने को राजी हुए हैं, वे मिटने को ही राजी हुए हैं। तो ही मेरे साथ चलना हो सकता है। और स्वाभाविक है कि अगर मैं तुम्हें राजी करना चाहूं मिटने के लिए, तो मैं तुमसे दूर होता जाऊंऔर खोता चला जाऊं। तुम मुझे खोजते हुए आगे बढ़ते चले आओ और एक दिन तुम पाओ, कि मैं भी खो गया हूं और मुझे खोजने में तुम भी खो गए हो।'तुम न जाने किस जहां में खो गए।'यही तो प्रेम की मंजिलें हैं, यही तो उसके आगे के इम्तिहान हैं।आखिरी प्रेम का इम्तिहान यही है कि वहां प्रेमी खो जाता है। और जिस दिन खोता है उसी दिन पाता है, सब मिल गया। इसलिए प्रेम की भाषा गणित की भाषा नहीं है। प्रेम की भाषा हिसाब की भाषा नहीं है। प्रेमकी भाषा तो पागलपन की भाषा है, दीवानगी की भाषा है, मतवालेपन की भाषा है।तो तरु से मैं कहूंगा, बजाय यह सोचने के कि 'तुम न जाने किस जहां में खो गए'; बजाय यह सोचने के कि 'मौत भी आती नहीं, सांस भी जाती नहीं, दिल को यह क्या हो गया'; सोचो--आरजू तेरी बरकरार रहेदिल का क्या है रहा न रहासब खो जाए, तो भी जो अमृत है वह तो नहीं खो जाता है। वही खोता है जो खो जा सकता है। और जो खो जा सकता है, वह जितनी जल्दी खो जाए उतना अच्छा है। क्योंकि जितनी देर उलझे रहे उतनी ही मुसीबत! जितनी देर उलझे रहे उतना ही समय गंवाया। जितनी जल्दी जागे उतना अच्छा। जितनी देर सोए उतनी ही रात, उतना ही व्यर्थ।ध्यान रहे कि मिटने की जितनी तैयारी होगी--और मिटना पीड़ापूर्ण है, इसे जानकर--उतनी ही जल्दी पीड़ा की रात का अंत आ जाता है। जब तक तुम नहीं मिटे हो तभी तक पीड़ा मालूम होती है--क्योंकि मिटना है...मिटना है...मिटते जाना है। जल्दी करो, मिट जाओ। स्वीकार कर लोमृत्यु को। वह भीतर जो एक लड़ाई चलती है बचने की, वह छोड़ दो। फिर पीड़ा भी समाप्त हो गयी। छोड़ते ही संघर्ष, पीड़ा समाप्त हो जाती है। लेकिन संकल्प आदमी का जन्मों-जन्मों का कमाया हुआ है, और समर्पण कठिन होता है। समर्पण भी हम करते हैं तो रत्ती-रत्ती करते हैं।
OSHO -
एस धम्मो सनंतनो

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